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इमाम हुसैन ने परिवार सहित क़ुर्बानी देकर दीन को बचाया,,


   
मोहम्मद सैफ साबरी

  लखनऊ। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार इस्लामिक हिजरी साल की शुरुआत  मोहर्रम के महीने से होती है। हिजरी से मतलब जब रसूले खुदा स.अ.व.इस महीने में मक्के से मदीना हिजरत की यानी (सफर) किया और इसी महीने में पैग़ंबर-ए-इस्‍लाम हज़रत मोहम्‍मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन को उनको उनके परिवार एवं 72, साथियों सहित भूका प्यासा कुरुर शासक यज़ीद की फौज द्वारा बहुत बे रहमी से क़त्ल करा दिया गया। वाक़ीया कर्बला कुरुर शासक यज़ीद की फौज द्वारा इमाम हुसैन से बैअत की मांग करने और इमाम हुसैन द्वारा इंकार किये जाने के बाद पेश आया।मोहर्रम में मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन की इसी क़ुर्बानी और शहादत को याद करते हैं। हज़रत इमाम हुसैन का रौज़ा इराक़ के शहर कर्बला में उसी जगह है जहां ये वाक़िया पेश आया. ये जगह इराक़ की राजधानी बग़दाद से क़रीब 120 किलोमीटर दूर है और बेहद सम्मानित स्थान है।  मुहर्रम के महीने में दसवें दिन ही दीने मुहम्मदी की रक्षा के लिए हज़रत इमाम हुसैन ने अपने परिवार सहित कुर्बान कर दिया। इसी दिन को अरबी में यौमे आशूरा भी कहा जाता है। शिया मुसलमान यकुम मुहर्रम यानी मुहर्रम की पहली तारीख से 8, रबिउल अव्वल तक इमामबाड़ों में मजलिसो मातम कर सोग मनाते हैं और मुहर्रम की 10, तारीख से लेकर 8, रबीउल अव्वल तक अलम ताज़िया निकालते हैं। भारत ही नहीं पूरे विश्व में मोहर्रम में शिया मुसलमान मजलिस ओ मातम करते हैं यह सिलसिला दो महीना आठ दिन तक जारी रहता है। लेकिन लखनऊ अजादारी का मरकज़ कहा जाता है। यहाँ के नवाबों ने शहर में बड़ी तादाद में इमामबाड़ों का निर्माण करवाया था। मीर अनीस, जिन्होंने अपने मरसियों में विस्तार से वाक़िया कर्बला को नज़्म की शक्ल में पेश किया है। जिसे आज भी तमाम सोज़ खान ग़मगीन आवाज़ से मजालिसों में पढ़ते हैं। जिस से लोगों की आँखें नम होती हैं। पुरुष, नौजवान,महिलाएं एवं बच्चे फुट फुट कर रोते हैं। मर्द, जवान लड़के क़मा ज़नजीर का मातम कर खुद को लहू लुहान कर लेते है।

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